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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


असमंजस


बसंत जाकर उसी ड्राइंगरूम में बैठ गया, जहाँ वह बहुत बार कुसुम के शिक्षक के रूप में बैठ चुका था। इन चार वर्षों में कुसुम और बसंत के बीच किसी प्रकार का कोई पत्र-व्यवहार नहीं हुआ था, और न उन्हें एक-दूसरे के विषय में कुछ मालूम था। वसंत सोच रहा था कि इतने दिनों के बाद कुसुम न जाने किस भाव से मिलती है, कैसा स्वागत करती है, उसका आना उसे अच्छा भी लगता है या नहीं, कौन जाने?

इतने ही में बिना किनारी की एक सफेद, खादी की साड़ी पहिने कुसुम ड्राइंगरूम में आई। बसंत ने बड़े ही नम्न भाव से उठकर अभिवादन किया। 'क्यों क्या कुसुम को इतनी जल्दी भूल गए जो अपरिचित की तरह शिष्टाचार करते हो, बसंत बाबू' कुसुम ने हलकी मुस्कुराहट के साथ कहा।
बसंत का ध्यान इस ओर न था, वह चकित दृष्टि से कुसुम के सादे पहिनावे को देख रहा था। सौभाग्य के कोई चिह्न न थे। न तो हाथ में चूड़ी और न माथे परे सिंदूर की बिंदी । विधाता! तो क्या कुसुम विधवा हो चुकी है? किंतु बसंत का हृदय इस बात को मानने के लिए तैयार ही न होता था।
क्या सोच रहे हो बसंत बाबू? कुसुम ने फिर पूछा। बसंत जैसे चौंक पड़ा, बोला, “कुछ तो नहीं, वैसे ही मैं देख रहा था कि”
कुसुम ने बात काटकर कहा, आप मेरी तरफ देख रहे होंगे, किंतु इसके लिए क्या किया जाए, विधि के विधान को कौन टाल सकता है?

बसंत को मालूम हुआ कि विवाह के दो ही वर्ष बाद कुतुम विधवा हो गई। उसके पिता भी उसे अटूट संपत्ति की अधिकारिणी बनाकर छै महीने हुए परलोकवासी हुए। बसंत ने देखा कि विपत्तियों ने कुसुम को ज्ञान में उससे भी अधिक प्रौढ़ बना दिया है। कुसुम उमर में बसंत से कुछ साल छोटी थी, किंतु बसंत अभी संसार-सागर के इसी तट पर था और कुसुम! कुसुम, लहरों के चपेट में आकर उस पार-बसंत से बहुत दूर, पहुँच गई थी। बसंत के जीवन में आशा थी और कुसुम का जीवन निराशापूर्ण था। निराशा की अंतिम सीमा शांति है। कुसुम उसी शांति का अनुभव कर रही थी।

उस दिन बसंत फिर लौटकर वापिस न जा सका। कुसुम के अनुरोध से वह दो दिन तक कुसुम का मेहमान रहा। दोनों ने परस्पर एक-दूसरे के विषय में इतने दिनों का हालचाल जाना। पत्र न लिखने की शिकायत न तो कुसुम को थी, न बसंत को। चलते समय कुसुम ने बसंत से आग्रह किया कि यदि किसी काम से उन्हें इस ओर आना हो तो इलाहाबाद में जरूर ठहरें। कुसुम, बसंत का हृदय, उसकी आँखों में देख रही थी, उसे विश्वास था कि बसंत जरूर आवेगा।

बसंत का स्वास्थ्य दिनोदिन बिगड़ता ही गया। कोई खास बीमारी तो न थी, केवल आठ-दस दिन तक मलेरिया ज्वर से पीड़ित रहने के बाद वह कमजोर होता गया। छुट्टी में जलवायु परिवर्तन के लिए बसंत मसूरी गया। प्रकृति के सुंदर दृष्य, यात्रियों की चहल-पहल, बिजली की रोशनी, किसी भी बात से बसंत के चित्त को शांति न मिल सकी, वह सदा गंभीर और उदास रहा करता। कुसुम को वह जी से प्यार करता था। बसंत का स्वभाव और चरित्र अत्यंत उज्ज्वल और ऊँचा था, फिर भी जब वह सोचता कि कुसुम के विवाह के समय, उसके सुख के समय, उसकी आँखों में आँसू आए थे और कुसुम के विधवा होने पर उसके हृदय में आशा का संचार हुआ है, तब वह अपने विचारों पर स्वयं लज्जित होता और अपने को नीच समझकर धिक्कारता।
बसंत बहुत दिनों तक मसूरी में न रह सका । देहरादून एक्सप्रेस से वह एक दिन इलाहाबाद जा पहुँचा। कुसुम के सदव्यवहार से कुछ शांति मिली। कई दिनों से बसंत कुसुम को कुछ कहना चाहता था किंतु कहते समय उसे ऐसा मालूम होता जैसे कोई आकर उसकी जबान पकड़ लेता हो, वह कुछ न कह सकता था।
एक दिन बगीचे में कुसुम बसंत के साथ टहल रही थी, दोनों ही चुपचाप थे। बसंत ने निस्तब्धता भंग की, उसने पूछा, कुसुम! तुम अपना सारा जीवन इसी प्रकार, तपस्विनी की तरह बिता दोगी?
-क्या करूँ ईश्वर की ऐसी ही इच्छा है,' कुसुम ने शांति से उत्तर दिया।
-किंतु इस तपश्चर्या को सुख में परिवर्तित करने का क्‍या कोई मार्ग नहीं है?
-क्या मार्ग हो सकता है बसंत, तुम्हीं कहो न? मेरी समझ में तो नहीं आता?
बसंत ने धड़कते हुए हृदय से कहा, पुनर्विवाह, जैसा कि तुम्हारी सखी मालती ने भी किया है।
कुसुम को एक धक्का-सा लगा। उसका चेहरा लाल हो गया। उसने दृढ़ता से कहा, लेकिन बसंत बाबू मुझसे तो यह कभी न हो सकेगा।

बसंत चुप हो गया। वह रह-रहकर अपनी गलती पर पछता रहा था। बसंत ने साहस करके इस नाजुक विषय को छेड़ तो जरूर दिया था, किंतु वह डर रहा था कि कहीं कुसुम की नजर से वह नीचे न गिर जाए। दोनों चुप थे। दोनों के दिमाग में एक प्रकार का तूफान-सा उठ रहा था। टहलते-टहलते कुसुम जैसे थककर एक संगमरमर की बेंच पर बैठ गई। उसने बसंत से भी बैठ जाने का इशारा किया। उसने कहा, "बसंत मैं तुम्हें कितना चाहती हूँ, शायद तुम इसे अभी तक अच्छी तरह नहीं जान पाये हो?" बसंत के हृदय में फिर आशा चमक उठी, वह ध्यानपूर्वक उत्सुकता के साथ कुसुम की बात सुनने लगा।
कुसुम ने कहा-"तुम भी मुझे पहले से चाहते थे यह बात मुझ से छिपी न रह सकी, उस दिन ड्राइंगरूम में अपनेआप ही प्रकट हो गई, लेकिन यह प्रकट हुई बहुत देर के बाद, जब उसके लिए कोई उपाय शेष न था। उसके बाद बसंत, इन लम्बे चार वर्षों की अवधि में भी मैं तुम्हें भूल नहीं सकी हूँ, जैसा कि तुम देख रहे हो।" बसंत का हृदय जोर से धड़क रहा था। कुसुम ने फिर कहा-"इतना सब होते हुए भी, बसंत ! मैंने निश्चय किया है कि मैं कभी पुन: विवाह न करूंगी, अपने माता-पिता और अपने स्वामी की स्मृति में कलंक न लगाऊंगी, तुम्हारी ओर मेरा शुद्ध प्रेम है, उसमें वासना और स्वार्थ की गन्ध नहीं है।" बसंत हताश हो गया । कुसुम ने फिर कहा- "कहानियों की तरह क्या प्रेम का अन्त विवाह में ही होना चाहिए, बसंत !" बसंत कोई उत्तर न दे सका । उसने देखा कुसुम प्रेम की दौड़ में भी उससे बहुत आगे निकल गई है। बसंत अपने को स्वार्थी, और ओछे हृदय का समझने लगा। उसे ऐसा मालूम हुआ कि कुसुम बहुत ऊंचे से-किसी दूसरे लोक से-बोल रही है जिसे बसंत कुछ समझ सकता है और कुछ नहीं।

इसके बाद बसंत और कुसुम के बीच में इस विषय में फिर कभी कोई बात न हुई । किन्तु; बसंत अब भी समझता है कि कुसुम का तर्क सत्य नहीं है, किसी सुकवि की कल्पना की तरह यह सुन्दर ज़रूर है, पर उसमें सचाई नहीं है । परन्तु इस प्रकार के विचार आने पर वह स्वयं अपनी आँखों से नीचे गिरने लगता है, उसके कानों में बार-बार कुसुम के यह शब्द गूंजने लगते हैं-"क्या प्रेम का अन्त कहानियों की तरह विवाह में ही होना आवश्यक है?"...

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